झांसी की रानी का बलिदान दिवसः लक्ष्मीबाई के शव की रक्षा करते हुए शहीद हो गए थे 745 नागा साधू

बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी. यह शब्द अभी भी हमारे कानों में आता हैं तो वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई (Rani Laxmibai) के युद्ध कौशल और वीरता का याद करते हुए मन आज भी श्रद्धा से झुक जाता है।

ग्वालियर। 18 जून को वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की 164 वां बलिदान दिवस है. (Veerangana Rani Laxmibai 164th death Anniversary) इस मौके पर वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई के उस युद्ध को याद करना बेहद जरूरी है जिसमें अंग्रेजों से लड़ते हुए रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हो गई थीं. ग्वालियर स्थित संत गंगा दास की कुटिया पर वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की समाधि आज भी बनी हुई है. यहीं पर रानी लक्ष्मीबाई ने अपने प्राण त्याग दिए थे।

दत्तक पुत्र को लिया गोद: वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को उत्तर प्रदेश में हुआ था. बचपन से मनु और मणिकर्णिका के नाम से बुलाई जाने वाली वीरांगना साहसी और निडर स्वभाव की थी. मनु का विवाह झांसी के महाराजा राजा गंगाधर राव से हुआ. विवाह के बाद वे रानी लक्ष्मीबाई के नाम से पहचानी जाने लगीं. इसके बाद 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया, लेकिन 4 महीने की उम्र में उसकी मृत्यु हो गई. 1818 में उन्होंने एक दत्तक पुत्र को गोद ले लिया इनका नाम दामोदर राव रखा गया. इसके कुछ ही दिनों बाद झांसी के राजा का निधन हो गया।

रानी लक्ष्मीबाई के खिलाफ बगावत: राजा के निधन के बाद अंग्रेजों ने झांसी को अपने साम्राज्य में मिलाने की साजिश रची. अपनी हड़प नीति के तहत इसका फायदा उठाना शुरू कर दिया. अंग्रेजों ने दामोदर राव को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से मना कर दिया. इसके बाद अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मीबाई के खिलाफ बगावत शुरू कर दी. इस दौरान रानी लक्ष्मीबाई और अंग्रेजों के बीच युद्ध प्रारंभ हो गया. 18 जून 1818 को जब झांसी की रानी ने दतिया को जीत लिया और ग्वालियर आकर यहां के राजा सिंधिया से मदद मांगी, लेकिन वहां से वे खाली हाथ लौटी. तभी अंग्रेजों ने उन्हें घेर लिया. इस दौरान अंग्रेज सैनिकों ने उन पर हमला कर दिया।

मेरे शरीर को गोरे अंग्रेजों को नहीं छूने देना: घायल अवस्था में रानी लक्ष्मीबाई किले के नीचे संत गंगा दास की कुटिया में पहुंची और उन्होंने नागा साधुओं से मदद मांगी. संत गंगा दास की कुटिया में लगभग 1000 से अधिक नागा साधु रहते थे. घायल अवस्था में वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई को यह साधु उठाकर अपनी कुटिया में ले आए और रानी का इलाज करना शुरू कर दिया, लेकिन रानी को आभास हो गया कि, वह शायद अब बच नहीं पाएंगी, इसलिए उन्होंने साधु गंगादास से कहा बाबा मेरे शरीर को गोरे अंग्रेजों को नहीं छूने देना. बस इतना कह कर रानी लक्ष्मीबाई ने अपने प्राण त्याग दिए. इस दौरान अंग्रेजों को पता लग गया कि, रानी घायल अवस्था गंगा दास की कुटिया में पहुंच गई हैं. इसी समय अंग्रेज यहां पहुंचे और साधुओं से रानी लक्ष्मीबाई को हवाले करने को कहा।

745 नागा साधु संत शहीद हो गए थे: जब साधु ने मना किया तो अंग्रेजों ने गंगा घाट की कुटिया पर हमला बोल दिया. यहां रानी के शव की रक्षा करते हुए 745 नागा साधु संत शहीद हो गए थे. जब बाबा गंगादास को लगा इन निहत्थे साधुओं के दम पर अंग्रेजों से रानी के शव को बचाया नहीं जा सकता तो उन्होंने रानी की अंतिम इच्छा को पूरा करने के लिए घास फूस की बनी कुटिया में उनका अंतिम संस्कार कर दिया. यहां रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम संस्कार हुआ. यहां पर आज रानी लक्ष्मीबाई का समाधि स्थल है. यहां पर आज भी वह अस्त्र-शस्त्र सुरक्षित रखे हुए हैं. इनका इस्तेमाल करते हुए साधु संतों ने अंग्रेजों से झांसी की रानी के सब को सुरक्षित रखा था।

Author: Sudha Bag

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